वित्त कार्य : अर्थ एवं विचारधाराएँ (Finance Function : Meaning and Approaches)
वित्त कार्य से आशय उन समस्त प्रयासों से है जिनका उपयोग किसी व्यवसाय वित्त प्राप्ति के दृष्टिकोण से किया जात है। दूसरे शब्दों में, व्यवसाय के लिए आवश्यक कोषों की व्यवस्था करना वित्त का प्रमुख कार्य है। किन्तु, धीरे-धीरे वित्त का के स्वरूप में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है। आधुनिक व्यवसाय प्रबन्ध के परिवर्तित परिपेक्ष्य (वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण के कारण) में आज वित्त का कार्य इससे कहीं अधिक व्यापक हो गया है। अब कोषों की व्यवस्था के साथ-साथ इस प्रका प्राप्त कोषों का प्रभावपूर्ण उपयोग भी वित्त कार्य में सम्मिलित किया जाता है।
इसलिए वित्त कार्य को भली प्रकार समझने के लिए वित्त कार्य की दो विचारधाराओं-
- (i) परम्परागत विचारधारा; एवं
- (ii) आधुनिक विचारधारा को समझना आवश्यक है
वित्त कार्य की परम्परागत विचारधारा(Traditional Approach of Finance Function)
वित्तीय प्रबन्ध की परम्परागत विचारधारा ने प्रारम्भिक अवस्था में वित्तीय प्रबन्धक की भूमिका को सीमित रखा। इस विचारधारा के अनुसार वित्त का प्रमुख कार्य कोषों की व्यवस्था करना तथा आवश्यकतानुसार समय-समय पर कुछ अन्य कार्य सम्पन्न करने तक सीमित था। वित्तीय प्रबन्धक को प्रवर्तन, पुनर्संगठन, विस्तार जैसी प्रमुख घटनाओं के समय उसकी विशेष योग्यताओं के कारण बुलाया जाता था। हन्ट, विलियम एवं डोनाल्डसन के अनुसार, “वित्त कार्य का प्रमुख उत्तरदायित्व उपक्रम के लिए सर्वाधिक स्वीकारात्मक शर्तों पर व्यवसाय के उद्देश्यों के अनुरूप पूंजी की प्राप्ति एवं कोषों का प्रबंध इस विचारधारा के अन्तर्गत पूंजी प्राप्ति के साधनों, संस्थागत स्रोतों तथा वित्त के प्रचलित व्यवहारों के अध्ययन प्रमुखता दी जाती है।
संक्षेप में इस विचारधारा के अनुसारकरना है।
(1) कोषों की प्राप्ति :
वित्त का प्रमुख कार्य विभिन्न संस्थाओं से सम्पर्क स्थापित करके उपक्रम के पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए विभिन्न स्रोतों से आवश्यक कोषों को एकत्रित करना एवं उनका प्रबन्ध करना होता था।
(2) प्रासंगिक कार्य :
वित्तीय कार्य का सम्बन्ध उपक्रम के दैनिक संचालन से न होकर कभी-कभी उत्पन्न होने वाली (episodic) समस्याओं जैसे कम्पनी का प्रवर्तन, पुनर्गठन विस्तार एवं समापन आदि से होता था।
(3) आन्तरिक प्रबन्ध की अवहेलना :
संस्था के आंतरिक प्रबन्ध की तुलना में विनियोजकों के मार्गदर्शन पर अधिक ध्यान देना था। अत: इसे 'बाहरी व्यक्तियों द्वारा उपक्रम में झांकने की विचारधारा' भी कहते हैं ।
(4) दीर्घकालीन वित्त पूर्ति :
इसमें वित्त पूर्ति के दीर्घकालीन स्रोतों एवं समस्याओं पर बल दिया गया है। यह विचारधारा कार्यशील पूंजी की समस्याओं कर विचार नहीं करती।
(5) वर्णात्मक प्रकृति :
वित्तीय प्रबन्ध के विभिन्न पहलुओं का व्यवहार विश्लेषणात्मक होने के बजाय वर्णात्मक प्रकृति का था । कोई भी वित्तीय निर्णय विश्लेषणात्मक नहीं होता था ।
इस परम्परागत विचारधारा के अनुसार वित्त कार्य अथवा वित्तीय प्रबन्ध के क्षेत्र में बाहरी स्रोतों से कोषों का संग्रह करना ही सम्मिलित था । वित्तीय प्रबन्धक की भूमिका सीमित थी । उससे यही अपेक्षा की जाती थी कि वह सही वित्तीय लेखा रखे, निगम की स्थिति तथा निष्पत्ति के विवरण तैयार करे तथा रोकड़ का प्रबन्ध इस प्रकार करे कि निगम समय पर अपने बिलों का भुगतान कर सके। अत: इसके लिए वर्तमान 'वित्तीय प्रबन्ध' के स्थान पर 'निगम वित्त' शब्द का प्रयोग किया गया ।
परम्परागत विचारधारा की प्रथम अभिव्यक्ति जो कि बहुत क्रमबद्ध नहीं थी, सन् 1897 में थॉमस ग्रीन द्वारा लिखित पुस्तक 'कॉरपोरेशन फाइन्सेस' में पायी गयी जिसे सन् 1910 में एडवर्ड मीड ने अपनी पुस्तक 'कॉरपोरेशन फाइनेन्स' में बल प्रदान किया। किंतु सन् 1919 में आर्थर डेविंग ने 'दि फाइनेन्सियल पॉलिसी ऑफ कारपोरेसन्स' नामक पुस्तक में इसे पुरजोर समर्थन दिया। यह पुस्तक निगम वित्त के क्षेत्र में शैक्षिक कृति के रूप में लगभग तीन दशक तक छायी रही। इस प्रकार वित्त कार्य की परम्परागत विचारधारा का सन् 1897 से 1950 तक बोलबाला रहा। किन्तु बाद में इसकी तीव्र आलोचना की गई तथा निम्न आधारों पर इसे त्याग दिया गया-
( 1 ) बाहरी व्यक्तियों द्वारा झांकने की विचारधारा :
इस विचारधारा में वित्त कार्य को कोषों का संग्रह तथा प्रशासन ही माना गया। इसमें वित्त कार्य की विषय सामग्री को कोषों के पूर्तिकर्ताओं अर्थात् बाहरी व्यक्तियों (बैंकर्स, विनियोजक आदि) के दृष्टिकोण से ही आंका गया। इस प्रकार इसमें बाहरी व्यक्तियों की तुलना में उन लोगों के दृष्टिकोण की अवहेलना की गई जो संस्था की आन्तरिक वित्त पूर्ति सम्बन्धी निर्णय लेते हैं ।
(2) नैत्यिक समस्याओं की अवहेलना :
यह विचारधारा एक उपक्रम के जीवन में घटने वाली अनियमित (sporadic) घटनाओं को अधिक महत्त्व देती है। वित्त कार्य की विषय सामग्री प्रमुख रूप से निगम उपक्रमों के प्रवर्तन, संविलयन, एकीकरण व पुनर्संगठन के दौरान उत्पन्न वित्तीय समस्याओं तक ही सीमित रही जिसके परिणामस्वरूप व्यावसायिक उपक्रम की दैनिक वित्तीय समस्याओं को कोई स्थान नहीं मिल पाया।
(3) गैर-निगम उपक्रमों की अवहेलना :
इस विचारधारा में निगम उपक्रमों की वित्तीय समस्याओं पर अधिक ध्यान दिया जाता है। गैर निगम औद्योगिक संगठन जैसे एकाकी व्यापार, साझेदारी संस्थाएँ इसके क्षेत्र से बाहर हैं ।
( 4 ) कार्यशील पूंजी के अर्थ - प्रबंधन की उपेक्षा :
यह विचारधारा दीर्घकालीन वित्त-पूर्ति कीसमस्याओं को विशेष महत्त्व प्रदान करती है तथा अल्पकालीन वित्त-पूर्ति या कार्यशील पूंजी के अर्थ प्रबंधन की उपेक्षा करती है।
(5) अवधारणात्मक भूल :
इस विचारधारा की अवधारणात्मक एवं विश्लेषणात्मक आधार पर भी आलोचना की गई है। इस विचारधारा में वित्त कार्य को केवल कोषों की प्राप्ति तक ही सीमित रखा गया है। इसमें कोषों के विवेकपूर्ण आवंटन तथा प्रभावी उपयोग पर कोई बल नहीं दिया गया है।
इस प्रकार यह विचारधारा दो महत्त्वपूर्ण घटकों-
- (i) वित्त पूर्ति मिश्रण तथा इजरा सोलोमन '
- (ii) पूंजी लागत एवं कार्य के मूल्यांकन में सम्बन्ध पर विचार नहीं करती है। यह विचारधारा जैसा कि ने कहा है, वित्तीय प्रबन्ध के निम्नलिखित प्रमुख मुद्दों की उपेक्षा करती है-
- क्या एक उपक्रम के पूंजी कोष निश्चित उद्देश्यों के लिए ही प्रयोग किये जाने चाहिए?
- क्या अपेक्षित प्रत्याय निष्पत्ति के वित्तीय प्रमापों के अनुकूल है?
- इन प्रमापों का निर्धारण कैसे किया जाय तथा उपक्रम के लिए पूंजी कोषों की लागत क्या है?
- लागत किस प्रकार वित्त पूर्ति की प्रयुक्ति विधियों के मिश्रण के अनुसार परिवर्तित होती है?
वित्त कार्य की परम्परागत विचारधारा इन प्रश्नों के उत्तर देने में पूर्णतः असफल सिद्ध हुई है, किन्तु आधुनिक विचारधारा, जिसका वर्णन नीचे किया गया है, इन सभी प्रश्नों के उत्तर देती है।