वित्तीय प्रबन्ध : एक परिचय (Financial Management: An Introduction)

उद्देश्य : इस आर्टिक्ल को पढ़ने के पश्चात् आप समझ पायेंगे→ 
  • वित्त का अर्थ एवं क्षेत्र
  • व्यावसायिक वित्त एवं वित्त कार्य 
    • परम्परागत विचारधारा
    • आधुनिक विचारधारा एवं वित्तीय निर्णय
  • वित्तीय प्रबन्ध का अर्थ एवं प्रकृति 
  • वित्तीय प्रबन्ध के उद्देश्य 
    • लाभ अधिकीकरण 
    • सम्पदा अधिकीकरण
  • वित्तीय प्रबन्ध का क्षेत्र अथवा कार्य 
  • वित्तीय प्रबन्ध का महत्त्व एवं सीमाएँ
  • वित्तीय प्रबन्ध का संगठन
  • आधुनिक वित्त प्रबन्ध के कार्य एवं दायित्व
  • प्रमुख शब्दावली
            वित्त आधुनिक व्यवसाय का जीवन रक्त है। यह उद्योग एवं वाणिज्य के लिए उसी प्रकार महत्त्वपूर्ण है जिस प्रकार पहियों को चिकनाई देने वाला तेल, हड्डियों के लिए मज्जा तथा नाड़ियों के लिए रक्त । वर्तमान समय में व्यवसाय को प्रारम्भ करने, सुचारु रूप से चलाने एवं विकसित करने के लिए वित्त की आवश्यकता होती है। वित्त के अभाव में अच्छी से अच्छी योजनाएँ केवल कागजों पर ही रह जाती हैं और यदि पर्याप्त वित्त के अभाव में किसी योजना को कार्यरूप दे भी दिया जाये तो बाद में उसके संचालन एवं नियंत्रण में अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं। वास्तव में, कभी-कभी वित्त की अपर्याप्तता व्यावसायिक असफलता का कारण नहीं होती, बल्कि वित्त का कुप्रबन्ध ही इसके लिए उत्तरदायी होता है। किसी संस्था का जीवित रहना तथा विकास करना तभी सम्भव होता है जबकि वह अपने कोषों का सर्वोत्तम उपयोग करे। अतः यह कहना ठीक ही है कि बिना पर्याप्त वित्त के कोई व्यवसाय जीवित नहीं रह सकता तथा बिना प्रभावपूर्ण वित्तीय प्रबन्ध के कोई व्यवसाय समृद्ध एवं विकसित नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में, किसी व्यवसाय की सफलता बित्त की पर्याप्त पूर्ति तथा वित्त के प्रभावपूर्ण प्रबन्ध पर ही निर्भर करती है।

वित्त का अर्थ एवं क्षेत्र
(Meaning and Areas of Finance)

        वित्त का तात्पर्य मुद्रा से होता है। इसमें इस बात का अध्ययन किया जाता है कि किस प्रकार व्यवसायी, विनियोक्ता, सरकारें, वित्तीय संस्थाएँ एवं परिवार अपनी मुद्रा का प्रबन्ध अथवा संचालन करती हैं, इस प्रकार वित्त मुद्रा प्रबन्ध का अध्ययन है (Finance is the study of money management) । इसमें न केवल वित्त उपलब्ध कराने की क्रिया ही सम्मिलित की जाती है, वरन् उसका प्रशासन एवं नियंत्रण भी सम्मिलित किया जाता है जिससे वित्त का उचित उपयोग हो सके। वित्त कुछ विशिष्ट क्षेत्रों से सम्बन्धित होता है। प्रत्येक क्षेत्र में वित्तीय प्रबन्धक मुद्रा के प्रबन्ध से सरोकार रखता है। इन विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत संस्थाओं के उद्देश्य भिन्न होते हैं, इसलिए इनकी समस्याएँ भी एक जैसी नहीं होती हैं। विभिन्न प्रकार की संस्थाओं की वित्तीय क्रियाओं के इन क्षेत्रों को पाँच क्षेत्रों में बांटा जा सकता है, जो इस प्रकार हैं।

(1) सार्वजनिक वित्त : 

सार्वजनिक वित्त का आशय राजकीय (State) वित्त से होता है । इसके अन्तर्गत यह अध्ययन किया जाता है कि विभिन्न सार्वजनिक संस्थाएँ किस प्रकार अपनी वित्तीय प्रबन्ध-व्यवस्था करती हैं। सार्वजनिक शब्द के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकारें तथा स्थानीय संस्थाएँ (Local Bodies) आती हैं। इसके अंतर्गत यह देखा जाता है कि ये संस्थाएँ किस प्रकार अपनी आय प्राप्त करती हैं और सार्वजनिक हित में उसका व्यय किस प्रकार करती हैं। संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि सार्वजनिक वित्त में सार्वजनिक आय, व्यय तथा ऋण सम्बन्धी व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है।

(2) व्यावसायिक वित्त : 

व्यावसायिक वित्त में लाभोपार्जन के उद्देश्य से संचालित किये जाने वाले उपक्रमों की वित्तीय व्यवस्था का अध्ययन किया जाता है। इसमें व्यावसायिक क्रियाओं के लिए आवश्यक धन को प्राप्त करने एवं उसके प्रबन्ध का अध्ययन किया जाता है। एकल व्यवसाय, साझेदारी, कम्पनियाँ आदि सभी प्रकार के संगठनों के लिए वित्त व्यवस्था व्यावसायिक वित्त में सम्मिलित की जाती है। जब वित्त की व्यवस्था निगमों के लिए की जाती है तब इसे 'निगम वित्त' (Corporation Finance) कहा जाता है। ।

(3) संस्थागत वित्त : 

किसी देश की आर्थिक संरचना में अनेक वित्तीय संस्थान जैसे- बैंक, बीमा कम्पनी तथा विशिष्ट वित्तीय संस्थाएँ होती हैं। ये संस्थाएँ व्यक्तिगत बचतकर्ताओं से धन एकत्रित करके व्यावसायिक संस्थाओं को उपलब्ध कराती हैं। संस्थागत वित्त पूंजी निर्माण से सम्बन्धित होता है और अर्थव्यवस्था की वित्त पूर्ति का कार्य करता है।

(4) अन्तर्राष्ट्रीय वित्त : 

जब मुद्रा अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं को पार कर जाती है, तब व्यक्ति, व्यवसायी और सरकार सभी को विशेष समस्याओं का सामना करना पड़ता है। प्रत्येक देश की अपनी मुद्रा होती है जिसे दूसरे देशों में माल या सेवाएँ क्रय करने पर उस देश की मुद्रा में परिवर्तन करना होता है। अनेक सरकारें मुद्रा के विनिमय पर प्रतिबन्ध लगा देती हैं जिससे व्यावसायिक लेन-देन प्रभावित होते हैं। अतः अन्तर्राष्ट्रीय वित्त में राष्ट्रीय सीमाओं के बाहर व्यक्तियों एवं संगठनों में कोषों का प्रवाह तथा इन प्रवाहों का कुशलतम प्रबन्ध करने की विधियों का अध्ययन किया जाता है।

(5) वित्तीय प्रबन्ध : 

व्यावसायिक संस्थाओं को अपनी क्रियाओं के संचालन हेतु कोषों की प्राप्ति एवं उनके कुशलतम उपयोग में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। आज के प्रतिस्पर्धात्मक बाजार में व्यवसाय को अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कोषों का सही उपयोग करना चाहिए। इसके लिए वित्तीय प्रबन्धक की सहायतार्थ अनेक प्रविधियों का विकास हो चुका है। वित्तीय प्रबन्ध में इन सभी का अध्ययन किया जाता है जो इस पुस्तक की विषय सामग्री है।
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