वित्त कार्य की आधुनिक विचारधारा (Modern Approach of Finance Function)
वित्त कार्य का परम्परावादी दृष्टिकोण अति वर्णनात्मक था । यह बहुत कुछ एक विश्व कोष की भांति था तथा पर्याप्त विश्लेषणात्मक नहीं था। इसमें विशेष घटनाओं के समय वित्त पूर्ति ( episodic financing) पर बल दिया गया, परिणामस्वरूप परिवर्तितव्यावसायिक परिस्थितियों में इसकी उपयोगिता समाप्त हो गई। 1950 के पश्चात् अनेक आर्थिक एवं पर्यावरणीय घटकों यथा - प्रतिस्पर्धा में वृद्धि, व्यवसाय के आकार में वृद्धि, समामेलित संस्थाओं का विकास, तकनीकी परिवर्तन आदि के कारण व्यवसाय के प्रबन्धकों के लिए यह आवश्यक हो गया कि वित्तीय साधनों का अनुकूलतम उपयोग किया जाये । साथ ही, निर्णयन हेतु अनेक उपकरण एवं प्रविधियों का विकास हो जाने से संस्था के संसाधनों का अनुकूलतम आवंटन सम्भव हो गया । अतः अब वित्त के परम्परावादी दृष्टिकोण में परिवर्तन हो चुका है और विषय के वर्णात्मक पक्ष पर अधिक ध्यान देने के स्थान पर इसके विश्लेषणात्मक पक्ष पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा है। इसलिए वित्त कार्य की आधुनिक विचारधारा नवीन एवं व्यापक संदर्भ में वित्तीय कार्यों को परिभाषित करती है ।
इस नवीन विचारधारा के अनुसार, “वित्त कार्य से आशय व्यवसाय में प्रयुक्त कोषों का नियोजन, प्राप्ति, नियंत्रण और प्रशासन से सम्बन्धित क्रियाओं से है।''’ इसमें वित्त को व्यवसाय के प्रवर्तन एवं पुनर्गठन के समय तक के लिए ही सीमित नहीं माना जाता वरन् इसे समय-समय पर उत्पन्न होने वाली समस्त वित्तीय समस्याओं से सम्बन्धित माना जाता है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार वित्त कार्य में -
- (i) संस्था की पूंजी आवश्यकताओं का निर्धारण;
- (ii) आवश्यक कोषों की प्राप्ति ताकि अनुकूलतम पूंजी संरचना का निर्माण किया जा सके;
- (iii) विभिन्न सम्पत्तियों में कोषों का आवंटन; तथा
- (iv) कोषों के कुशलतम उपयोग के लिए वित्तीय नियंत्रण आदि कार्यों को सम्मिलित किया जाता है।
इस प्रकार वित्त कार्य की आधुनिक विचारधारा के अनुसार वित्त कार्य केवल कोषों का संग्रह करना ही नहीं है बल्कि पूंजी का प्रभावपूर्ण एवं मितव्ययितापूर्ण उपयोग करना भी है। कोषों का प्रभावपूर्ण उपयोग करने के लिए वित्तीय प्रबन्धक को तीन महत्त्वपूर्ण निर्णय यथा-
- (i) वित्त-पूर्ति निर्णय ( Financing Decisions);
- (ii) विनियोग निर्णय (Investment Decisions); तथा
- (iii) लाभांश निर्णय (Di, idend Decisions) लेने पड़ते हैं।
वित्तीय प्रबन्ध के ये तीनों निर्णय सहसम्बन्धित होते हैं जिनका परिणाम कोषों का अनुकूलतम उपयोग है। अतः इन तीनों निर्णयों का सामूहिक परिणाम ही वित्त कार्य कहलाता है। इसे अग्रिम पृष्ठ पर दिये चार्ट द्वारा स्पष्ट किया गया है।
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वित्त-पूर्ति निर्णय (Financing Decisions)
उचित समय पर आवश्यक कोषों की व्यवस्था करना वित्तीय प्रबन्धक का प्रमुख कार्य है। अतः वित्तं - पूर्ति निर्णय उपक्रम की पूंजी सम्बन्धी आवश्यकताओं से सम्बन्धित होते हैं। इनके अन्तर्गत पूंजी की मात्रा का निर्धारण, पूंजी संरचना का निर्माण तथा वित्त के स्रोतों के चयन सम्बन्धी निर्णय लिये जाते हैं। पूंजी की मात्रा का निर्धारण संस्था की स्थायी सम्पत्तियों, चालू सम्पत्तियों एवं अमूर्त सम्पत्तियों ( प्रवर्तन व्यय, संगठन व्यय, वित्त प्राप्ति व्यय, ख्याति, पेटेन्ट आदि) में विनियोजित की जाने वाली राशि का पूर्वानुमान लगाकर किया जाता है। पूंजी संरचना का निर्धारण कुल विनियोजित पूंजी में समता पूंजी व ऋण पूंजी के अनुपात द्वारा किया जाता है । ऋण पूंजी के अधिक उपयोग से उपक्रम की लाभदायकता की सीमा में वृद्धि होती है क्योंकि ऐसी स्थिति में कर दायित्व में कमी आ जाती है, किन्तु साथ ही क्षमता से अधिक ऋण का उपयोग करने से जोखिम में वृद्धि होती है जिससे लाभदायकता में कमी आ जाती है। अतः पूंजी संरचना ऐसी होनी चाहिए जिससे उपक्रम की जोखिम को न्यूनतम रखते ( उसकी लाभदायकता को अधिकतम किया जा सके। ऐसी पूंजी संरचना अनुकूलतम पूंजी संरचना (Optimal Capital Structure) कहलाती है। इससे अंशधारियों के विनियोग मूल्य में वृद्धि होगी।
पूंजी संरचना का निर्धारण करने के उपरान्त वित्तीय प्रबन्धक को प्रस्तावित पूंजी संरचना के अनुसार विभिन्न स्रोतों के आवश्यक कोषों की प्राप्ति की व्यवस्था करनी होती है । कोषों के स्रोतों का चयन पूंजी की लागत, लागत की प्रकृति (स्थायी या परिवर्तनशील) तथा कोष की अवधि पर निर्भर करती है। इसके लिए वित्तीय प्रबन्धक विभिन्न वित्तीय स्रोतों (विकास बैकों, जनता, बैंक आदि) से सम्पर्क स्थापित करता है तथा अभिगोपकों आदि की नियुक्ति करता है। वित्तीय प्रबन्धक न केवल प्रारम्भिक वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उत्तरदायी होता है, अपितु भविष्य में उपक्रम के विकास, विस्तार, एकीकरण एवं संविलयन योजनाओं के लिये अतिरिक्त पूंजी की व्यवस्था भी करता है।
विनियोग निर्णय (Investment Decisions )
कोषों की व्यवस्था करने के पश्चात् वित्तीय प्रबन्धक का कार्य इन कोषों का विभिन्नसम्पत्तियों में आबंटन (Allocation of Funds) करना है। इसके लिए वित्तीय प्रबन्धक उन सम्पत्तियों का चयन करता है जिनमें उपक्रम के कोषों का विनियोग किया जायेगा। ऐसी सम्पत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं- प्रथम, स्थायी अथवा दीर्घकालीन सम्पत्तियाँ जिनसे भविष्य में दीर्घकाल तक आय प्राप्त होती रहेगी तथा द्वितीय, चालू अथवा अल्पकालीन सम्पत्तियाँ जो सामान्यतः एक वर्ष की अवधि में नकदी में परिवर्तित हो जाती हैं। अतः सम्पत्ति चयन अथवा विनियोग निर्णय दो प्रकार के होते हैं - (i) स्थायी सम्पत्तियों में विनियोग सम्बन्धी निर्णय जिन्हें पूंजी बजटन निर्णय (Capital Budgeting Decisions) कहते हैं, तथा (ii) चालू या अल्पकालीन सम्पत्तियों में विनियोग सम्बन्धी निर्णय जिसे कार्यशील पूंजी प्रबन्ध (Working Capital Management) कहा जाता है।
पूंजी बजटन निर्णयों में उन सम्पत्तियों में धन लगाने अथवा न लगाने के बारे में निर्णय किया जाता है जिनमें कोषों का विनियोग लम्बी अवधि के लिये होता है। ऐसे निर्णय उन सम्पत्तियों की लागतों एवं उनसे उदय होने वाले लाभों या प्रत्याय के आधार पर लिये जाते हैं। इनमें अनिश्चितता एवं जोखिम की मात्रा अधिक होती है। अतः ऐसे निर्णय कोषों के विनियोग से भावी वर्षों में प्राप्त होने वाले लाभों तथा निहित जोखिम को ध्यान में रखकर ही लिये जाते हैं। आधुनिक विचारधारा के अनुसार विनियोग निर्णय लेते समय पूंजी की लागत (Cost of Capital) का भी ध्यान रखना आवश्यक होता है।
कार्यशील पूंजी के प्रबन्ध से आशय चालू सम्पत्तियों के प्रबन्ध से है। चालू सम्पत्तियों में विनियोग सम्बन्धी निर्णय लाभदायकता तथा तरलता अथवा जोखिम को प्रभावित करते हैं। चालू सम्पत्तियों में आवश्यकता से कम विनियोग लाभदायकता की सीमा में तो वृद्धि कर देगा किन्तु समय पर चालू दायित्वों का भुगतान न कर पाने से दिवालियेपन की जोखिम एवं तरलता स्थिति को आमंत्रित करेगा। दूसरी ओर, चालू सम्पत्तियों में आवश्यकता से अधिक कोषों के विनियोग से तरलता एवं जोखिम की स्थितियों में तो सुधार होगा किन्तु साथ ही लाभदायकता की मात्रा में कमी हो जावेगी। अत: चालू सम्पत्तियों में कोषों का विनियोग करते समय वित्तीय प्रबन्धक को यह देखना होगा कि लाभदायकता, तरलता एवं जोखिम में संतुलन बना रहे। इसके अतिरिक्त व्यक्तिगत चालू सम्पत्तियों (स्कन्ध, रोकड़, प्राप्य विपत्र आदि) का प्रबन्ध भी कुशलतापूर्वक किया जाना चाहिए ताकि अनावश्यक या अपर्याप्त कोषों का विनियोग न हो पाये ।
लाभांश निर्णय (Dividend Decisions )
लाभांश निर्णय लाभांश के उचित वितरण से सम्बन्धित होते हैं। इनके अन्तर्गत यह तय किया जाता है कि शुद्ध लाभों का कितना भाग नकद लाभांश के रूप में अंशधारियों को वितरित किया जाये, कितना भाग प्रतिधारित अर्जनों के रूप में व्यवसाय में रखा जाये तथा कितना भाग कर्मचारियों को बोनस एवं लाभभागिता के रूप में वितरित किया जाये। लाभांश नीति का निर्णय इसका अंशधारियों की सम्पदा कर पड़ने वाले प्रभावों के आधार पर किया जाना चाहिए। अनुकूलतम लाभांश नीति वह होती है जिससे प्रति अंश बाजार मूल्य अधिकतम होता है। अतः वित्तीय प्रबन्धक को अनुकूलतम भुगतान-अनुपात (Payout Ratio) का निर्धारण करना चाहिए। इसके लिए वित्तीय प्रबन्ध को सीमान्त विनियोजकों की चालू लाभांश के प्रति वरीयता, अंशों के बाजार मूल्य में वृद्धि, प्रतिधारित अर्जनों का पूंजी संरचना व औसत पूंजी लागत पर प्रभाव को भी ध्यान में रखना होगा। वास्तव में लाभांश निर्णय वित्त-पूर्ति निर्णयों से ही सम्बन्धित होते हैं क्योंकि इनसे (प्रतिधारित अर्जनां) आन्तरिक वित्त- पूर्ति की कुल राशि का निर्धारण होता है ।
अत: नवीन विचारधारा के अनुसार वित्त कार्य एक व्यापक क्रिया है जिसमें उपक्रम की समस्त वित्तीय क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है। इससे उचित वित्तीय नियोजन, मितव्ययितापूर्वक पूंजी प्राप्ति, विवेकपूर्ण विनियोग एवं कुशलतम वित्त उपयोग द्वारा उपक्रम के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है । इजरा सोलोमन के शब्दों में, "प्राचीन विचारधारा के अन्तर्गत वित्त के स्रोतों पर अधिक बल दिया जाता था जिसका संबंध मुख्यतः कोषों की प्राप्ति से होता था । किन्तु नवीन एवं व्यापक विचारधारा के अन्तर्गत वित्त की प्राप्ति तथा आबंटन हेतु एक विवेकपूर्ण नीति के निर्धारण को भी सम्मिलित किया जाता है ताकि वित्त का अधिकतम सदुपयोग हो सके ।